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Friday, July 29, 2011

आत्म - रस

उगते सूरज को प्रणाम करूँ
जो डूब जाए तो राम-राम करूँ

क्यों किसी का कल्याण करूँ
बस अपना ही उत्थान करूँ

ये सोच सुबह से शाम करूँ
और सोच-सोच बिहान करूँ

बस इतना ही मैं काम करूँ
और तान चदरिया आराम करूँ

कोई टोके तो तुम-ताम करूँ
अपनी ऊँचाई पर बस मान करूँ

उपदेशों का केवल दान करूँ
और अपना ही गुणगान करूँ

काया - कष्टं का बलिदान करूँ
और आत्म रस का पान करूँ

जो माने उसका सम्मान करूँ
न माने तो घमासान करूँ .

Friday, July 22, 2011

पूर्णविराम

प्रायश:
मेरे पूर्णविराम का
परकाया गमन
प्रायोगिक नहीं
प्रायोजित होता है
कभी अल्पविराम में
कभी योजक चिह्न में
कभी प्रश्नवाचक चिह्न में
कभी विस्मयाधिबोधक चिह्न में
तो कभी किसी उद्धरण चिह्न में..
कभी तो नियमों के पार जाकर
अपने स्थान पर
क्रमागत बिन्दुओं को
इसतरह सजा देता है कि
उसे भरने में
मैं शून्य हुए जाती हूँ
और न जाने
कहाँ से आ जाता है
उस शून्य के भी आगे
अनंत का चिह्न......
ये कौन सी पहेली है
ये कैसा खेल है
कोई भूलभुलैया भी होता तो
पता होता कि इसी में
खोया है कहीं पूर्णविराम
या मेरा परकाया गमन
अनंत में हो जाता तो
मिल जाता पूर्णविराम.......
इस नयी-नयी काया में
आत्मा के साथ यात्रा का
हो जाता सुखद अवसान
दम साध , दम भर
कर लेती मैं आराम
पर न जाने क्यूँ
सारे चिह्न
प्रायोजित होकर
बारम्बार मेरी काया में ही
प्रवेश कर जाते हैं
मैं सोचती रह जाती हूँ कि
क्यों मेरा गमन
फिर किसी
पर काया में हो जाता है
और हर बार की तरह
एक बार फिर
मेरा पूर्णविराम
मुझसे ही
कहीं खो जाता है.

Saturday, July 16, 2011

उद्यम

कम नहीं हैं
अपेक्षाएं
खुद से ही....
चुनौती की
दोधारी तलवार
आतंरिक एवम
बाह्यरूप से....
खुद को
साबित करने का
एक जूनून भी....
घड़ी-घड़ी घुड़की
घुड़दौड़ में
अव्वल न सही
जगह सुरक्षित कर
दौड़ते रहने का...
साथ ही
लंगड़ी मारने में भी
कुशल होने का......
आखिर
आँख खोलने से
अब तक
पिलाया गया
हर घुट्टी का
असर है.....
जो मूर्च्छा में भी
दोहरे दबाव को
घुसपैठ करा
किसी भी कीमत पर
ऊँच-नीच करके
सफलता के झंडे को
ऊँचा किये रहता है...
और
तराजू के पलड़े को
बराबर करने के लिए
राज़ी-ख़ुशी से
खुद को ही
काट-काट कर
बोटी-बोटी करना
सफल उद्यम
बन जाता है .

Friday, July 8, 2011

नियत ताप पर

नियत ताप पर
उबलते विचार
भाप बन उड़ जाते
या जल जाते तो
मर जाता मन
नौ रसों के साथ..
और छूट जाता
बेकार सा करते रहना
निरर्थक जतन...
जीवन सरल हो जाता
झोपड़ी महल हो जाता.
शून्य भी दिखता
कुछ भरा-भरा
सांय-सांय करती
हवाएं भी
एक छोर से दूसरे छोर तक
करती रहती अठखेलियाँ
जिसके संग
मन भी हवा बन जाता
और रह जाता
अपने बालपन में ही.
सच! सबकुछ
कितना सरल हो जाता.
पर
नियत ताप पर भी
उबलते विचार
उफन-उफन कर
लगते हैं गिरने
बूंदों में ही सही
और हर बूंद
बराबर हो जाता है
एक-एक
परमाणु बम के.....
अपने अन्दर दबाये हुए
उस विध्वंसात्मक
विपुल ऊर्जा को..
जो परिवर्तन के लिए
हर हाल में तत्पर है
अपने नियमानुसार...
उसी नियत ताप पर
उसे बदलना भी होगा
सृजनात्मकता में...
ताकि
नियत ताप पर भी
जनमती रहे
कालजयी-कृतियाँ.

Saturday, July 2, 2011

अर्पण

अभिसंयोग के
उन अभिभूत क्षणों में
उन....उन..... क्षणों में
अभिज्ञात होता है मुझे
अतिशय अलौकिक स्पर्श
मानो मुझमें ही कोई
या.....या......या ....वही
आकार लेता है
वह अद्भुत,मृदु छवि
वह..... मनोहर काया
प्रेम करता है.... मुझे...
...प्रेम.....प्रेम.....प्रेम....
...हाँ.....वही... दिव्य प्रेम.
...बरसती रहती है...
....बूंदे......बूंदे.......बूंदे....
..बूंदे.....आनंद की बूंदे..
..भींगता रहता है..
...तन...........मन....
..और.......और......
........और.............
मैं.........रहती हूँ
..उन्ही क्षणों में...
............हर क्षण .
.......वह क्षण है........
हर क्षण......हर क्षण....
....उस क्षण पर.....
हो गया है...मेरा....मेरा....
..ये.............. जीवन
....समस्त .......जीवन
.................अर्पण .