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Friday, August 26, 2011

कैसे मैं...

कैसे मैं कह दूँ
कि तुम क्या जानो
प्रेम की तीव्रता को
जबकि हर बार
मैंने छुआ है
तुम्हारे प्रबल वेग से
टूटती उसकी सीमाओं को...

कैसे मैं कह दूँ
कि मैं न बोलूं तुमसे
जबकि हर बार
मैंने देखा है
उलाहना के बोल को
मनुहार में बदलते हुए ....

कैसे मैं कह दूँ
कि तुम क्या जानो
ह्रदय में उठती हूक को
जबकि हर बार
मैंने सोखा है
तुम्हारे तुलनात्मक ताप से
कई गुणित प्रवाहित प्रेम को...

कैसे मैं कह दूँ
कि मैं न रूठूँ तुमसे
जबकि हर बार
मैंने चाहा है
मिलन की मधुर घड़ी
कभी न बदले
विदाई की बेला में....

अब कैसे मैं कहूँ
अनगिना अनकहा को
जबकि तुमने जो
धर दिया है
अधर को
........अधर पर .

Friday, August 19, 2011

अंधेरनगरी में....

अंधेरनगरी में भी
चलता है अंधेरखाता
अक्ल पर पड़े पहाड़ को
क्यूँ है उठाता
ये उल्टी गंगा
कौन है बहाता
खरी - खरी
किसको है सुनाता ?

अंधेरनगरी के
कानों में
तेल और घी भरा है
जूं - चीलड़ तक
नहीं रेंग रहा है
नाक तो कटी हुई है
पगड़ी भी उतरी हुई है .

अंधेरनगरी का कानून
अँधा बनकर अँधा बनाना
अंटी मारना , अंगूठा दिखाना
जूते चाटना , गाल बजाना
चूड़ियाँ पहनना , मक्खियाँ मारना .

अंधेरनगरी का है काम
सीधा उल्लू को सीधा करना
पकी खिचड़ी फिर-फिर पकाना
घोड़े बेच-बेच कर सोना
और कुत्ते की मौत मर जाना .

अंधेरनगरी में
नहीं निकलते चींटियों के पर
फटा करता है यूँ ही छप्पड़
एक ही लाठी से सभी हँकाते
अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन जाते .

अंधेरनगरी है अपनी नगरी
छलकत जाए अधजल गगरी .


( मुहावरा का खेल )



क्षणिकाएँ

अपराध-बोध

अब तो हर वक़्त
अपराध-बोध होता है
हक़ की बात करूँ तो
संविधान का
पन्ना खुल जाता है.

बुनियाद

यह ऊँचे आदर्शों का
है तिलस्मी महल या
रंग-रोगन किया हुआ
है कोई भरभराता खँडहर
बुनियाद की न लें खबर
वर्ना फ़ैल जायेगा जहर.

बहुमत

दबंग पहलू से दबका पहलू
है अंगूठा दिखा रहा
माना कि तू बहुमत में है
पर मैंने तेरा चूल हिला दिया.

Friday, August 12, 2011

प्रीत की रीत

ऊँघता चाँद
ऊभ - चुभ तारे
ठिठका सा बादल
ठहरी हवाएँ
सिमटा अँधेरा
सहमी सी दिशाएं
साँस रोके हैं
बेला-चमेली
संग उनके
मौलीश्री भी हो ली..
नदी किनारे
चकवा उदास
अजब सी
अनबुझी प्यास
हीरे सा पल
यूँ ही बीता जाये
राह तक तक
वह रीता जाये.....
कलंक की मारी
चकई बिचारी
दे जी भर भर
रात को गाली...
कोसे कभी
भाग के लिखान को
कभी कोसे
विधना के विधान को..
प्रीत की रीत
यही जब होई
चकवा को
न मिले चकई
तब भी प्रीत
करे क्यूँ कोई ?


Friday, August 5, 2011

मेरा सावन

मैं बावरी
ढूँढती फिरूँ
मारी - मारी
उस बावरे को
जो न जाने
कहाँ है मगन..
किसकी प्रीत
बनी है बैरन...
हाय ! कैसा
पड़ा है बिघन
जो न लेता
मेरा सुमिरन...
बिछोही बिना
सूना - सूना है
ये चित - वन
बिसाहा बन बेधे
शीतल पवन
बिछुवा लगे
अपनी धड़कन...
मैं बावरी
बौराती फिरूँ
उपवन से मरू वन
विदाही मिले न
करूँ क्या जतन...
बरबस ताकूँ
वितत गगन
टंगा है जिसपर
काला - काला घन
मिलने को आतुर
विकल बसुधा से
अमृत बूँद बन
पर बावरे बिन
कैसे बरसे
मेरा सावन .

बैरन - शत्रु बिघन - बाधा
सुमिरन - याद , ध्यान
बिसाहा - जहरीला
विदाही - जलाने वाला
वितत - फैला हुआ