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Saturday, March 31, 2012

मेक-ओवर


इस 'आज' की
बौखलाई कविता से
( समाचारवाचिका सी )
संतुलित संवेदना भी जाहिर होती तो
सहनीय होती उसकी बौखलाहट
शब्द वाया भावों की
थोपी जिम्मेदारियों से
कटघरे में घेर कर भी
बरी कर दी जाती
( समाचार सी पढ़ ली जाती )
इस 'आज' के
हालातों - ज़ज्बातों को वह
बिना लाग-लपेट के कहती रहती
ख़ुशी-गम से निकली आह-वाह को
ख़ुशी-ख़ुशी सहती रहती....
पर इस 'आज' की
बौखलाई कविता
एकालाप से त्रस्त कविता
कंठ के आक्षेप से ग्रस्त कविता
अब चुप ही रहना चाहती है
कोई लाख बोलवाये पर
मुँह नहीं खोलना चाहती है....
जबकि इस 'आज' का
बौराया कवि ( मैं भी )
सब रसों का रस चूस-चूस कर
अपना रस टपका-टपका कर
कविता कहता है
और खुद ही इतना बोल जाता है
कि बड़ी मुश्किल से
इस 'आज' की कविता में
ढूंढी गयी रही-सही
खूबसूरती भी
खुद कवि के ही काया-क्लिनिक में
अत्यधिक रंग-रोगन करके
शब्दित मेक-ओवर की
सुलभ शिकार हो जाती है .

Tuesday, March 27, 2012

लिख सको तो...


मेरे प्रेम में
लिख सको तो
महाकाव्य लिखना
आसमानी भाव के
अंतहीन पन्नों पर...
कह सको तो
अपने तप के
बादलों को कहना
झूम-झूम कर
बरसता रहे
अनवरत
अमृत धार बनके
और
हर प्रेमाकुल
तप्त ह्रदय को
सींचता रहे
प्रतिपल
पतित-पावन
संस्कार बनके...
जो केवल
शब्दों की शोभा
न बनकर
शंखनाद सा
बजता रहे
बारबार
प्राणों के तारों पर
शाश्वत ओंकार बनके .
लिख सको तो...

Wednesday, March 21, 2012

बस कोई ...


सत्यश :
जो जैसा है
समर्पित है
स्वयं सत्य को
बस कोई
पूर्ण प्रमाण
देने वाला चाहिए...

सुना है
रोशनी तो
पलक पर ही
विराजती है
बस कोई
दक्ष दस्तक
देने वाला चाहिए....

गिरि पर
गर्भिणी गंगोत्री में
दिखती नहीं गंगा
बस कोई
सूक्ष्म नयन
देखने वाला चाहिए....

कुछ बूंदें
जैसे-तैसे
हाथ तो लगी है
बस कोई
सागर का
पक्का पता
बताने वाला चाहिए...

कहते हैं
काव्य में
मधुरता और
मादकता होती है
बस कोई
संज्ञा सिद्ध
करने वाला चाहिए....

अभी भी
बस एक
जरा सी कड़ी
खोई-खोई सी है
बस कोई
एक आखिरी बात
जोड़ने वाला चाहिए .  

Sunday, March 18, 2012

भीड़


मेरे भीतर
बहुत ही बुरी हालत में
ठेलम-पेल करती हुई
एक बदहवास भीड़
अजीब चाल में मुझे चिढाती हुई
हरवक्त रेंगती रहती है.....
मेरे ही नाक के नीचे
सभाएं आयोजित करती है , रैलियां निकालती हैं
मजे की बात है - मुझे नेता बनाती है
भावुकता के अतिवादी क्षणों में
ऊंचे-ऊंचे वादे करवाती है
आश्वासनों के दीये जलवाती है....
अपने खुले पेट पीट-पीट कर दिखाती है
मांगों की लम्बी फेहरिस्त भी थमाती है
जिसे पूरा करना मेरे बस की बात नहीं
उसी में मैं भी हूँ,कोई मुकुट धारी नहीं...
उम्मीदों के टूटने पर वे मुझे ही
विनष्ट करने की योजना बनाती हैं
और मैं चौबीसों घंटे
पीछे से अनेक -अनेक रूपों में
खुद पर अज्ञात हमलों के डर से
असहाय , निरुपाय महसूसती हूँ....
पूरी हिम्मत जुटाकर उन वादों से
सरेआम मुकर जाना चाहती हूँ
और उस दीये को भी
फूंक मार बुझा देना चाहती हूँ.....
मैंने तो जन्म नहीं दिया है
किसी भी राजशाही या तानाशाही को
बल्कि आत्मबल को थपकियाँ देकर सुलाया है
कमजोरियों के साथ जीना सीखा है
कतार में लगने का अभ्यास किया है
बिना प्रतिवाद के धक्का-मुक्की खाकर
और पीछे होना भी स्वीकारा है
लाल कालीन को घृणा से ही देखा है
जिसके नीचे बहती है खून की नदियाँ....
तो फिर मेरे भीतर
किस क्रान्ति के नाम पर
केवल मशालची ही दिखते हैं
जो मुझे ही मंच पर पटक कर
मेरे हड्डी-मांस-मज्जा से खेलते हैं....
सिर्फ एक वहशत , पागलपन
आशंकाओं का उफनता सैलाब
जैसे कि केवल मैंने ही
उन्हें बना दिया है
बंधुआ मजदूर सा आम आदमी
और धोखे से दिखा दिया है
राजमार्ग के उस छोर का राजमहल.....
मुझमें तो इतनी ताकत नहीं कि
किसी इतिहास को दुहराने से रोक दूँ
या फिर भीड़ को उकसा कर
कोई नया इतिहास रच दूँ.....
विकल्प के अभाव में
अभावों को सहती हूँ
उसी भीड़ के साथ जीती हूँ
और उसी भीड़ में मरती हूँ .




 

Wednesday, March 14, 2012

सृजन बेल


चकित हूँ / चिंतित भी
कलम - कागज़ के बीच
कसमसाती सृजनशीलता को देखकर
जी करता है हरवक्त उसे
हौले - हौले सहलाती रहूँ
विवशताओं की कमजोरियों को
अक्षरों से गुदगुदाती रहूँ........
अब तो इस कलम के सहारे
छोटे - बड़े हर पहाड़ को
जड़ से ही काट लेती हूँ
भूगर्भीय भूकंप के झटकों से
फिर बनते पहाड़ों को भी
झटके में भांप लेती हूँ........
माना कि गेंद बनाकर
शब्दों से खेलते रहना
कोई खूबसूरत शगल नहीं है
पर चोटील दर्द के डर से
चुप्पी की खाई में गिरकर
घुटनों पर घिसटते रहना भी
कोई खुशगवार हल नहीं है......
मन तो ललचता ही है कि
आँखों में जरा खुमार भरकर
सर पर कई-कई पाँव धरकर
अकल्पित/ अपरिचित ओर-छोर को
इस छोटी सी कलम की
छोटी सी नोक से नापती रहूँ
और अति यत्न से संचित
उत्साह को बेझिझक /बेवजह
बस बेहिसाब बांटती रहूँ........
मुझे क्या पता था कि
ये उत्सुकता / आकर्षण ही
सृजन बेल सी लतर जायेगी
और काँटों पर भी ललककर
खुद ही अपना आशय बताएगी .


Wednesday, March 7, 2012

मेरे सांवरे


हाय ! रंगों को भी
कुछ न समझ में आये
मेरा भोला फागुन भी भरमाये..
मैं न जानूं मेरे बावरे
तुझे मेरा कौन सा रंग भाये
जिसमें तू रंग-रंग जाये..
और मुझे भी ऐसे अंक लगाये
कि अंग-अंग केसर बन जाये....
फिर देख पड़ोसन जल-भुन जाये
भरदम कानाफूसी करके
आपस में उलझ-सुलझ जाये.....
सुनो न ! मेरे सांवरे
सब नाजो-नखरा छोड़ कर
तेरी बावरी क्या बोली-
तेरे संग खेलेगी वह होली
और वे झिलमिल तारे
नभ की डोली सजायेंगे
सारे बादल कहार बन जायेंगे
बस तुम मेरे रंग महल में आओ
मदिरा सा अपना प्यार लुटाओ....
मैं भी फागुनी बयार बनके
बेला ,चंपा ,चमेली से
सोलहों श्रृंगार करके
प्राणों से प्रणय की मनुहार करके
खुशबु सी यौवन लिए सकुचाउंगी
और सांस भर-भर कर
मेरे सांवरे
बस तेरे ही रंग में रंग जाउंगी .

Thursday, March 1, 2012

लाजवंती


न जाने
किस बात पर आज
उनसे ही उनकी
ठनी हुई है
जो मेरे प्राणों-पंजर पर
विपदा सी बनी हुई है...
उनकी आँखें
इसतरह से है नम
कि बरस रहे हैं
मेरे भी घनघोर घन....
रूठे जो होते तो
बस मना ही लेती
अपने रसबतियों में
उन्हें उलझा ही लेती....
पर हवाओं से भी
वे कुछ न बोले
अपने पीर का भी
घूँघट न खोले.........
कोई बताये किस विधि
उनसे उनकी सुलह कराऊँ
और विह्वलता के
बूँद-बूँद को पी जाऊँ.....
ये ह्रदय -फूल
क्षण-क्षण मुरझाये
प्रस्तर-प्रतिमा से
जब वे हो जाए......
आखिर कब लेंगे
सुधि हमारी
मैं भी तो हूँ
बस उनकी ही प्यारी....
जब प्रीत किया है
तो क्यूँ न उनकी
दीवानी कहाऊँ
और मैं लाजवंती
लाज की हर मर्यादा को
बस उनके लिए ही
लाँघ -लाँघ जाऊँ .