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Monday, June 25, 2012

सच कहो...


मुझे
अपने हाथों की
प्रत्यंचा बना सकते हो...
अपने तरकस से
तीर पर तीर चला सकते हो...
बेध सूर्य-चन्द्र को
अँधेरे को जिता सकते हो...
मेरी ऊँगली से
अपना चक्र भी चला सकते हो...
तुम्हारी विराटता सिद्ध हो तो
कण-कण में
मुझे बिखरा सकते हो....
और अपने जय-घोष में
मुझसे ही
शंख भी फुंकवा सकते हो....
पर जब मैं
तुम्हारा भेद खोलने लगूँ तो
सच कहो
अठारहों अध्याय भी
कम तो नहीं पड़ जायेंगे .

Thursday, June 21, 2012

कहीं पा न जाऊं ...


कल्पना  जिसकी  संजोयी  हूँ
उसे  सामने कहीं  पा  न जाऊं

घड़ी -दो -घड़ी  के  लिए  सही
मैं  अधन्या उसे  भा  न जाऊं

उस की  वंशी - धुन  सुन कर
शहनाई सी कहीं बज न जाऊं

बिन   श्रृंगार - पिटारी  के  ही
उसके रूप  से  सज   न  जाऊं

ठगे से  इन नयन के  ठांव में
मैं लुंठित  कहीं  लुट  न जाऊं

और लज्जा की लालिमा ओढ़े
नवोढ़ा - सी  ही  घुट  न  जाऊं

ह्रदय पर जो हरक्षण  छाई  है
प्रिय -छवि तो  अनोखी होगी

वह  मधुर - बेला  मिलन  की
कितनी   चकित  चोखी  होगी

उसके रंग के छिटके  छींटे  में
आभा  मेरी  भी  निखरी  होगी

मरुदेश सा इस मन मरघट में
इक हरियाली सी बिखरी होगी

हिलोर  लेती  छुई -मुई  घटाएँ
गगन में ऐसे भी  घिरती होगी

बन कर  दाह की  चिनगारियाँ
प्यास अधरों पर  तिरती होगी

सरस-सरस  स्वर   ले -ले कर
अमराई बन  छिटक  न  जाऊं

महक-महक कर मदमाती सी
जूही सी  कहीं  लिपट  न जाऊं

यदि वो घड़ी अभी आ जाए तो
भावना में  मैं  ही  बह  न जाऊं

न जाने  किस - किस भाषा में
क्या  कुछ  कहीं  कह  न जाऊं

ठिठक  गये  यदि  पग   मगर
मन  लिए ही कहीं बढ़ न जाऊं

लोक - लीकों  का  तोड़  भरम
सोच के पार  ही  चढ़  न  जाऊं

गरल  विरह  का  पी - पी कर
प्रेम - गीत  कहीं  गा  न  जाऊं

कल्पना  जिसकी  संजोयी  हूँ
उसे सामने  कहीं  पा न  जाऊं .

Sunday, June 17, 2012

प्रेम-वरदान


माना कि हर समय
पलड़े का झुका काँटा है
और दैविक सुअवसरों ने
केवल दुःख ही दुःख बाँटा है....
पर सच देखा जाए तो
हीरे ने ही हीरे को काटा है
चाहे जितना भी खींचता हुआ
त्रासदियों का ज्वार-भाटा है....
कौन कहता है कि
जिसे तिरना नहीं आता
हर लहरों से वह हारा है
उसका भी क्षिति से क्षितिज तक
क्षण प्रति क्षण का सहारा है....
अनुक्त अनुभूतियों का भी
विस्तृत विसदृश्य किनारा है..
जिसने अतल गहराइयों से भी
हर बार , हर बार उबारा है.......
ये भी माना कि
जिसे जीवन की नदी में
अपना द्वीप बनाना नहीं आता...
गंभीर ग्रीष्म को देखकर भी
मेघ बन उफन जाना नहीं आता...
और सूर्य की दीप्त किरण से
विमल हो मिल जाना नहीं आता....
पर वे भी एक
अकल्प अद्भुत संयोग ही हैं
विषम व्यवधान हेतु
एक विलक्ष वियोग ही हैं......
किन्तु ये तो बस समय की बात है
जिसमें संभवत: नियति के
खलनायक का भी बड़ा हाथ है.....
ह्रदय तो बस
ह्रदय की भाषा जानता है..
काल-दूरी से परे जाकर
बस धड़कनों को पहचानता है....
कहीं से तनिक भी
पाकर अनमोल प्रेम-वरदान
निर्मल सरोवर सा
बन जाता है हर सूखा प्राण....
जी उठती है जिसमें असीमित धार
छोड़ सारे अहम् व वहम को
कर ही लेता है वो
अभिनव,अभिभूत,अपरिमित प्यार .

Tuesday, June 12, 2012

क्रांति...


सक्रिय सहभागिता मेरी
जीवन के हर एक
स्पंदन और विचलन में
उच्छृंखलता और नियमन में
चढ़ान और फिसलन में
अवसाद और थिरकन में...
पर साथ-साथ
फन उठाये एक डर भी
उलझाता एक एहसास भी
परजीवी होने का....
अपने पेट में ही
उलझ-सुलझ कर
अपनी स्वतंत्रता को
कमोवेश निगलते जाना....
अपनी ही बिठाई
निष्पक्ष जाँच की धार पर
संभल-संभल कर चलना....
न जाने कब
अपदस्थ कर दी जाऊं...
अपने ही किसी काल-कोठरी में
नजरबंद कर दी जाऊं...
तब एक चरम बिंदु तय करके
समग्र साधनों को संचित करके
अगुआई करती हूँ
एक आत्मक्रांति की
और हो जाती हूँ - मुक्त
कुछेक पल के लिए...
हाँ! ये मेरी क्रांति ही
झझकोर रही है आज
समस्त संधित
संदीप्त चेतना को .

Sunday, June 3, 2012

पुन:पुन:...


तुममें खोई थी
कुछ बीजों को बोई थी
अब फूल खिलें हैं
काँटों में भी उलझे हैं....
तुममें खोती रही
बस तुम्हें
फूल ही फूल देती रही
और कांटे चुभोती रही....
चुभे काँटे हैं
दर्द देंगे ही
लाख मना करूँ
पर तुमसे कहेंगे ही....
तब तुम बाँहों में मुझे
यूँ घेर लेते हो
उन्हीं फूलों को
बिखेर देते हो
और कहते हो -
भूल जाओ दर्द को....
ये जिद ही है मेरी
कि मैं
तुममें यूँ ही खोती रहूँगी
और काँटे चुभोती रहूँगी
बस तुम्हें फूल देती रहूँगी
पुनर्नव पीड़ा पिरोती रहूँगी
पुन:पुन:
बस तेरे बाँहों के घेरे में
होती रहूँगी और खोती रहूँगी .