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Thursday, December 27, 2012

नजरबन्द ...


आजकल
शब्दों की हिम्मत भी
हवा देखकर बढ़ सी गयी है ...
न जाने क्यूँ वे
अपना आक्रोश मुझपर ही
अजीब तरह से व्यक्त कर रहे हैं
मैं निकल जाने को भी कहूँ तो
कुछ बुदबुदाते हुए उबल रहे हैं ....
तब तो शब्दों की छाती पर
मैंने भी तान दिया है पिस्तौल
अब तो उन्हें राजद्रोह स्वीकारना होगा
साथ में गिरफ्तारी भी देनी होगी
अपना बॉडी- वारंट देखे बिना ....
अब वे करते रहे अपना वकील
लिखवाते रहे अपने लिए हिदायतें
छाँटते रहे सही-गलत बातों को
अपना छाती दुखा-दुखा कर
करते रहे अपना जिरह
व अपनी पैरवी के लिए
करते रहे सारे प्रबंध-कुप्रबंध
और अपने धारदार बहसों से
काटते रहे गले के फंदों को ....
पर मैं तो एकदम से इन शब्दों की
बौराई हुयी सरकार सी हो गयी हूँ
अति आक्रोश में हूँ
इसलिए कुछ गिरगिटी शब्दों को छोड़कर
बाकी उन सभी रुष्ट शब्दों को
एक-एक करके
नजरबन्द कर देना चाहती हूँ
अपने कलम में ही .


Friday, December 21, 2012

हंसा , उड़ चल न ...


उड़ - उड़ कर , बहुत छान लिया
हमने कई , अम्बर - भूतल
कितने पंख , गिर गये हमारे
अबतक , तिल- तिल कर जल
अंगारों पर ही , चल रहा है
बंदी -सा , हर छिन - पल

क्यों किसी द्वार पर
नहीं रुकते ये शिथिल चरण ?
क्यों व्याकुल प्रश्नों से
बोझिल है ये धरती - गगन ?
क्यों संझियाई उदासी लिए
उत्तर के ताके है नयन ?

अब तो निर्लक्ष्य , न उड़
विकल खग -सा ,  रे! मन
देख , मरू के मग पर
क्षण भर को ही , लहराया है घन
भाग , उठ , उस रस का
भींग कर , कर आलिंगन

कबतक जड़वत जीवन से
खाता रहेगा , तू ठेस रे!
ठगिनी माया है , तुझे रिझाए
धर , हंसिनी का वेश रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!

जिस देश का दुर्गम पथ भी
बने हमारा , पावन बंधन
उस बंधन से ही , बंध जाए
इस मन का , सब सूनापन
और सूनेपन में भी , खिल जाए
कमल - पंखुड़ियों सा , ये जीवन

तब ताकता रह जाएगा , तू ही
उन पंखुड़ियों को , अनिमेष रे!
सबकुछ अपना , निछावर करके
न रखेगा  , कुछ भी शेष रे!
हंसा , उड़ चल न
अपने ही , उस देश रे!

Monday, December 17, 2012

लिखो , लिखो , खूब लिखो ...


लिखो , लिखो , खूब लिखो
खुरदरे , संकरे किनारे से भी धकेले हुए
पीछे के पन्नों पर बनाए गये
कँटीले बाड़ों में बिलबिलाते
उन वंचितों के लिए
लिखो , लिखो , खूब लिखो

लिख भर देने से ही
झख मारते हुए इतिहास बदल जाता है
इसी झांसे में आकर
इतिहास का भूगोल भी बदल जाता है
और कितनी ही कुवांरी क्रांतियाँ
गर्भ बढाए हुए अजन्मे परिवर्तन का
नामाकरण संस्कार करवाती है
फिर अचानक से यूँ ही
भरे दिन में गर्भपात करा लेती है

ऐसी वंचनाओं का आदि इतिहास
इस आदि इतिहास का अमर इतिहास
उन्हीं वंचितों को कोसता रह जाता है

लिखो , लिखो , खूब लिखो
शेषनाग सा फन फैलाए हुए
अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से चूसते हुए
उन शोषणों के खिलाफ
और नैसर्गिक निरीहता में भी
अर्थवत्ता को सुलगाते हुए
उन शोषितों के लिए

लिखो ,लिखो , खूब लिखो
उनके दर्द से कलपते देह को
और काल के कोड़ों से
फव्वारे की तरह फूटते खून को
उनके ही खंडहर के दीवारों से टकराती हुई
चमगादड़-सी डरी हुई उनकी आत्मा को
उनके ही भुरभुरे भग्नावशेषों को
और उनके जीजिविषा के अवशेषों को

लिखो , लिखो , खूब लिखो
उन अपढ़ ,निरक्षरों के लिए
जिनके लिए आज भी
काला अक्षर मरी हुई भैंस ही है
जिसके थनदुही में लगे हुए हैं
अक्षरों के थानेदार और हवलदार

लिखो ,लिखो , खूब लिखो
विवश विचारों की आँधियाँ उठाओ
कुचक्रों के चक्रवातों में उन्हें फँसाओ
और अपने काले- उजले अक्षरों को
घसीट-घसीट कर ही सही
अपंग- अपाहिज सा इतिहास बनाओ .  

Thursday, December 13, 2012

मैं तुम्हें दे दूँ...


ये किनारा भी , मैं तुम्हें दे दूँ
वो किनारा भी , मैं तुम्हें दे दूँ
ये गझिन गारा भी , मैं तुम्हें दे दूँ
और ये धवल धारा भी , मैं तुम्हें दे दूँ

मेट कर अपनी बनावट , मैं ढह जाऊँ
तेरे अपरिमित ज्वार को , मैं सह जाऊँ

ये तनु तरलता भी , मैं तुम्हें दे दूँ
ये मृदु मधुरता भी , मैं तुम्हें दे दूँ
ये चटुल चपलता भी , मैं तुम्हें दे दूँ
और ये उग्र उच्छ्रिंखलता भी , मैं तुम्हें दे दूँ

तेरी हर साँस में ,  ऐसे मैं बह जाऊँ
हर साँस की गाथा , हर किसी से कह जाऊँ

ये परिप्लव प्राण भी , मैं तुम्हें दे दूँ
ये निरवद्द निर्वाण भी , मैं तुम्हें दे दूँ
ये अमित अभिमान भी , मैं तुम्हें दे दूँ
और ये अमर आत्मदान भी , मैं तुम्हें दे दूँ

तनिक भी इस मैं में , न मैं रह जाऊँ
बस और बस तुम्हीं में,  मैं सब गह पाऊँ .



गझिन - गाढ़ा और मोटा
गारा - मिट्टी( जैसे नदी के तल की )
तनु - सुकुमार
चटुल - चंचल
परिप्लव - तैरता हुआ , बहता हुआ
निरवद्द - दोषरहित , विशुद्ध

Saturday, December 8, 2012

ऐ ! आलोचना के बाबुओं ...


क्या कहूँ ?
इस मुख से कहते हुए
बड़ी ही लज्जा सी आती है
कि कैसे
आज की कविता अपना चीरहरण
खुद ही करवाती है
और अपनी सफाई देते हुए
बात-बात में
गीता या सीता को
बड़ी बेशर्मी से ले आती है ...
और तो और
आल्वेज हॉट राम-कृष्ण का
कलरफुल कॉकटेल बनाकर
सबको उकसाती है , लुभाती है ...
ऐ ! आलोचना के बाबुओं
आप अपने को बचाए रखिये
बामुश्किल से चलती परम्परा को
किसी भी कीमत पर निभाये रखिये
यदि आपको कोई
ऑफर पर ऑफर दे भी तो
अपनी नजरें फिराए रखिये
और आपके कम्बल के भीतर
भला झाँकता कौन है ?
ये जो आज की नशीली कविता
कुछ ज्यादा ही बहकने लगे तो
उसी गीता या सीता को
हाजिर-नाजिर करके
जोर-जबरदस्ती से ही सही
अपना नीबूं-अचार चटाते रहिये .

Tuesday, December 4, 2012

डर मत मन ...



               इति-इति पर अड़ मत मन
               नेति-नेति से लड़ मत मन
                दुगुना दुःख कर मत मन
               वेदना से तू , डर मत मन

              गहन कोमलता जब लुटती है
                इक टीस सी तब उठती है
                मधुघट भी फूट जाता है
              मृदुमिटटी में मिल जाता है
               मृत्यु पूर्व ही मर मत मन
               वेदना से तू , डर मत मन

                 ह्रदय खोल और हुक उठा
              पुण्य प्रबल है , बस उसे लुटा
               जतन से चुभन को सहेज ले
                अगन को सूरज का तेज दे
               उत उलझन में पड़ मत मन
                वेदना से तू , डर मत मन

               व्यर्थ ही मिलती नहीं पीड़ा
              शैवाल तले बहती सदानीरा
              उपल के अवरोधों को सहती
               जल से ही जलधि है बनती
               अंजुली छोटी कर मत मन
                वेदना से तू , डर मत मन

               दुगुना दुःख कर मत मन
               वेदना से तू , डर मत मन .