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Tuesday, May 27, 2014

क्यों से क्यों तक.......

क्यों ?
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....

क्यों ?
जब मैं व्यर्थ ही बँट-बँट कर
भरे संसार में अकेली पड़ जाती हूँ
और संकोच छोड़कर तुमसे मिलते ही
क्षण में ही उत्सुक हो सबसे जुड़ जाती हूँ....

क्यों ?
लगातार लुटी-पिटी सी होकर भी
मुझसे तेरी वो शक्ति नहीं खोती है
और चैन से तुम्हारी गोद में आकर भी
ये जो चेतना है वो कभी नहीं सोती है.....

क्यों ?
इन सजल भार से बुझी-बुझी आँखों में
रह-रहकर सौ-सौ दीये जल जाते हैं
और तेरे तप्त भावों से पिघलना सीख कर
मेरे मित्ति-पाश टूट-टूटकर गल जाते हैं.....

क्यों ?
तेरे मशाल की लौ ऐसे लहका कर भी
केवल अपनी शीतलता में ही भिंगोती है
और इस अंतर की विकल घुमड़न को
अपने अमृत-कण की मालाओं में पिरोती है.....

क्यों ?
अपने ऊपर लम्बी बहसों की श्रृंखला चलाकर
सही अर्थों में सबको संस्कारित करना चाहती हो
और खुद परिधि से बाहर हो घृत-अगन में
प्राणपण से सबको परिष्कृत करना चाहती हो.....

क्यों ?
तुम नितान्त निष्प्रयोज्य सी होकर भी
सबकी सोयी संवेदनाओं को जगा देती हो
और अपनी जादूभरी चमत्कारी छुअन से
हिलकोर कर सबको ऐसे उमगा देती हो.....

फिर क्यों न तेरा मान हो ?
फिर क्यों न तुझपर अभिमान हो ?
फिर क्यों न तेरा गुणगान हो ?

मेरे हर क्यों से निकलती कविता !
मेरे हर क्यों से बहती कविता !
मेरे हर क्यों से सिमटती कविता !

सच है इस ब्रम्हांड की तुम्ही तो धड़कन हो
इसलिए तुमसे बँधकर मैं भी धड़कना चाहती हूँ
साथ ही तुमसे अपने हर क्यों से क्यों तक
निज प्रियता की मांग करते रहना चाहती हूँ .

Wednesday, May 21, 2014

फूल बिछाती शैया पर ....

                   एक मैं हूँ कि फूल बिछाती शैया पर
                    तब भी नींद नहीं आती है रात भर
                     जैसे -जैसे सब फूल कुम्हलाते हैं
                     तन-मन में काँटों-सा गड़ जाते हैं

                   भावों में बस खुसुर-फुसुर सी होती है
                    प्राण की कोकिल सिहर कर रोती है
                     इस नत नयन का है नीर भी वही
                  पल-पल की पीड़क पीड़ा भी अनकही

                    तिल-तिल कर मेरा उपल गलता है
                   मंदिम-मंदिम जब ये दीप जलता है
                   लौ मचल कर और भी अकुलाती है
                   विरव वेदना पर ही लवण लगाती है

                जिसकी छरछराहट से फीकी ज्वाला है
               उस जलन को असहन तक मैंने पाला है
               पाला तो निज कोमल कल्पनाओं को भी
               और पाला सुन्दर सुखकर सपनों को भी

                  पर कल्पनाओं को मैं आस दूँ कहाँ से ?
                 और सपनों को मैं मधुमास दूँ कहाँ से ?
                  हर रात मेरा ये रनिवास ही उजड़ता है
                 पर पूजित पाषाण को अंतर न पड़ता है

                ऊपर से पूजित पाषाण मुझपर हँसता है
                 मेरे समर्पण को ही पागलपन कहता है
                क्या पूजन-आराधन की यही नियति है
                 या मारी हुई मेरी ही अपनी ये मति है ?

                  ये मारी हुई मति भी तो बड़ी न्यारी है
                  उसको तो ये चरम वेदना ही प्यारी है
                तब तो मैं नित फूल बिछाती हूँ शैया पर
                 और अपनी नींद भी गँवाती हूँ रात भर .

Friday, May 16, 2014

क्यों न हम ...

इस ग्रीष्म की
आकुल उमस में
ऊँचें पर्वतों के
शिखरों से लेकर
समतल मैदानों में
साथ ही सूखी-बंजर
जमीनों के ऊपर भी
एक बादल
ऐसे घिर आया है
कि आँखों में
भर आया है
सारा आकाश....
जैसे
आशंका और विस्मय से
खुद को छुड़ाकर
ख़ुशी और उमंग
ह्रदय को थपथपा कर
कुछ और ही
कहना चाह रही हो...
जैसे कोई
शीतल-सा जल-कण
छोटा-छोटा मोती बन कर
बरस रहा हो..
सच में
बिन मौसम ही
एक आस-फूल खिला है
तो क्यों न ?
सबको मिलकर
उसे ऐसे खिलाना है कि
वह बस
आकाश-फूल न बनकर
हमेशा के लिए
उजास-फूल बन जाए..
इसके लिए
थोड़ा आगे बढ़कर
क्यों न हम ?
कम-से-कम
अपने-अपने कीचड़ में
अपना-अपना
एक कमल-फूल खिलाएँ
और विकसित होकर
खुद महके
औरों को भी महकाएँ .

Saturday, May 10, 2014

पापी से प्रेम ...

 सुनती आई हूँ कि शास्त्र-पाठ की महिमा अनंत है | जिसे यंत्रवत दोहरा-दोहरा कर कंठस्थ किया जा सकता है भले ही वह हृदयस्थ हो या न हो | अपना जो स्मृति-विज्ञान है न , उसके सहारे उत्तम तोता होकर ज्ञानी भी बना जा सकता है | मुझपर भी मेहनत करने वालों ने जी-जान लगाकर बहुत मेहनत किया और बची-खुची मेहनत मैं खुद भी किये जा रही हूँ | पर अबतक मैं न ही तोता बन पायी हूँ और न ज्ञानी ही | फिर भी कोमल-सी रसरी का जो विज्ञान है उसके अनुसार इस सिल पर थोड़ा-बहुत निशान तो पड़ा ही है | जो अक्सर मेरे लिए उलझन बन कर खड़ा हो जाता है | तब बाजार का विज्ञान अपने कई-कई बातों से बताता है कि निशान अच्छे हैं , पल में निशान गायब या कोई निशान नहीं पड़ेगा वगैरह-वगैरह | शायद सबका मतलब एक ही होता हैं कि हर निशान के साथ हमेशा अवसरवादी रुख ही अपनाना चाहिए |
                                     सबों की तरह मुझे भी नैतिक-शास्त्र से दूर का ढोल सुहावना जैसा ही लगाव रहा हैं | जो अपनी पीड़ित मानवता को सुख , शांति , अहिंसा , प्रेम और आपसी भाई-चारे का इतना पाठ पढ़ाता हैं कि उसकी प्रत्यक्ष प्रताड़ना से शायद ही कोई बचा हो | लगता हैं इस धरती पर सबके अवतरण के साथ ही पहली घुट्टी में नैतिकता ही पिलाई जाती है | मुझे भी अपने परिजनों से पूछने की हिम्मत तो नहीं है पर मन-ही-मन अब इसपर सोचने में कोई डर भी तो नहीं है | पर उस डर को याद करके आज भी मैं सहम जाती हूँ जब पहली पाठशाला में उस नैतिकता को डाँट-मार के साथ जीवन में उतारने को कहा जाता था |  फिर उसी पाठ के लिए प्रतिदिन दूसरी पाठशाला में भी यंत्रणा-यातना से गुजरना पड़ता था | पर उस भोले-भाले मन को बस इतना ही पता होता था कि उस विषय में किसी भी तरह पास कर जाना है | जब कोई ये कहता था कि तपो , निखरो और सोना बन जाओ तो बरबस हँसी फूट पड़ती थी | सोचती थी कि ये कौन सा पाठ है जो आदमी बनाने के बजाय सोना बना रहा है | ये पाठ पढ़-पढ़ कर कौन कितना सोना बन पाता है वही जाने पर मैं तो अभी तक अपने ऊपर सोने का पानी चढ़ा हुआ ही पाती हूँ | वैसे भी जीवन के बाजार में सबकुछ चल जाता है इसलिए मैं भी अपना सर उठा कर ही चलती जा रही हूँ |
                                              हाँ! तो नैतिक शास्त्रों के सूत्रों को लगातार रटते-रटते बेचारे मष्तिष्क को भी मुझपर दया आ गई | उसने अपनी उदारता दिखा कर कुछ सूत्रों को थोड़ा-बहुत जगह दे दिया और कुछ सूत्रों को सीधे अपने कचरा-कक्ष में फेंक दिया | अब कभी उन सूत्रों की जरुरत पड़ती है तो अपने कचरा-कक्ष में जाने से बेहतर फिर से शास्त्र को पलटना ही समझती हूँ | उन सूत्रों में से कुछ सूत्र तो ऐसे हैं कि मैं उनपर बुरी तरह से अटक जाती हूँ | जैसे पाप से घृणा करो पापी से नहीं | तो कोई समझाए कि पाप से दूर रहने वाला पाप करता हुआ पापी से पवित्र प्रेम कैसे करे ? जानती हूँ कि प्रेम करने का सूत्र भी अति गुप्त होता है पर उसे इतना भी गुप्त नहीं रखा जाना चाहिए कि साधारण जनमानस उससे वंचित रह जाए | अपने महाजनों को कम-से-कम सरल-सुबोध भाषा में सबको समझा कर जाना चाहिए था कि पाप के बीच रहते हुए भी खुद से या दूसरों से एकदम से खुल्लम-खुल्ला प्रेम करने के लिए नैतिकता के रबड़ को कैसे खींचा जाना चाहिए |
                                मुझे लगता है कि उसी नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ पुण्यात्माओं की उच्च भावनाएं उन पापात्माओं के लिए स्वयं प्रकट होती रहती है | उसे बस सुनने और समझने की जरुरत है | जैसे कि हे! पाप पर पाप करने वाले पापी , आप बेफिक्र होकर अपना पाप करते रहे और हमें बस अपना प्रेमी समझें | प्रेमी समझ कर हमपर बस इतनी कृपा करे कि अपने पाप को हमारा पाप या बाप न बनाये | साथ ही खुल्ल्म-खुल्ला ये साफ़ न करे कि हमें आपके पाप से पवित्र प्रेम है | न ही आप अपने पाप में हमें अपना साझीदार बनाये न ही भागीदार बनाये और न ही हमें पहरेदार बनाये | जिसप्रकार प्रेम का पवित्र सूत्र गुप्त है उसीप्रकार आप गुप्त रूप से अपने पाप-कार्य में पवित्रता से लगे रहे और हमसे बिलकुल निश्चिंत रहे | आप जितना अधिक पाप करते हैं हम आपको उससे अधिक प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम तो सदा से अँधा है | आपके पाप के विरोध में अहिंसात्मक रूप से हम यही कर सकते हैं कि कभी-कभी प्रभात-फेरी लगा आएंगे | या कभी मौन-व्रत धारण कर लेंगे | या कभी-कभी सब मिलकर गंगा के किनारे मोमबत्तियां जला आएंगे | यदि आप कहेंगे तो शांतिपूर्वक सामूहिक उपवास भी रख लेंगे | यदि इससे भी आपके कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी तो खुश-ख़ुशी सामूहिक स्वर्गवास भी कर लेंगे | पर आखिरी सांस तक ये कहना नहीं भूलेंगे कि हे! पापीधिराज , हमारे सरताज , हमारे मुमताज शाहजहाँ की तरह हम आपको प्रेम करते हैं और उस जहाँ में भी करते रहेंगे | बस आप रहम करके हमारे मजार पर अपने पाप का कोई ताजमहल नहीं बनाएंगे | नहीं तो जलन के मारे काला होकर वो ताजमहल कहीं उस पवित्रतम प्रेम से खुद ही इस्तीफा न दे दे |  

Tuesday, May 6, 2014

आग चाहिए ......

                  और ये चिलम सुलगता रहे
                  इसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खोना है
                   तो भी एक जाग चाहिए

                   ये न जन्नत में मिलती है
                    न ही जलूम जहन्नुम में
                   न ही मदहोश महफ़िल के
                तराशा हुआ किसी तरन्नुम में

                  गर तरस कोई खाये भी तो
                   कर्ज़ बतौर दे नहीं सकता
                 कमबख़्त चीज ही ऐसी है कि
                 कसम दे कोई ले नहीं सकता

                  ये एक तल्ख़ तलब है हुजूर
               जो तबियत लगाने से मिटती है
                 जब तबियत कहीं लग जाए
                  तो ये खुद-ब-खुद जलती है

                   फिर तो ये जली हुई आग
                    किसी को क्या बुझाएगी
                    खुद धुआँ को जज्ब कर
                    बस रोशनी ही सुझाएगी

                  ये चिलम बस सुलगता रहे
                  उसके लिए तो आग चाहिए
                   होश पूरी तरह से खो जाए
                    तो भी एक जाग चाहिए.