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Thursday, June 26, 2014

मुझे तो अब .....

                  अभी तो और भी है सोपान
                जिसपर अपना पाँव रखना है
                 रोको न मुझे ! मुझे तो अब
                 चाँद-सूरज को भी चखना है

                 बेठौर बादलों को फुसलाकर
                कांच का सुंदर-सा एक घर दूँ
                 ख़रमस्ती में खर-भर करके
                बिजलियों को मुट्ठी में भर लूँ

                 चकचौंहाँ तारों पर यूँ जाकर
                 तनिक देर तक सुस्ता आऊँ
                 रोशनी को नर्म रूई बनाकर
                मैं आहिस्ता-आहिस्ता उड़ाऊँ

                समय को यूँ सटका दिखाकर
                 कहूँ, उठक-बैठक करते रहो
                 हवाओं को डाँट कर कहूँ कि
                 कान पकड़ कर बस बैठे रहो

                मौसम से सब शैतानी छीनके
                 पल में नींद- चैन को उड़ा दूँ
               सावन को भी बुद्धू-सुद्धू बनाकर
                  झट से सारा पानी मैं चुरा लूँ

                  सब दिशाओं को समेट कर
                  एक छोर से मैं ऐसे टाँक दूँ
                क्षितिज को भी खींच-खींचकर
                  मैं आकाश को जैसे ढाँक दूँ

                 शायद मेरे ऐसा-वैसा करने से
                  कुछ गाँठ ही सही खुल जाए
                 और ये गीत सुरीला बन कर
                  सबके ओंठों में ही घुल जाए  

Monday, June 16, 2014

फ़रियाद ....

क्यों तूफ़ान की तरह आते हो
और तिनका की तरह
मुझे उड़ा ले जाते हो ?
मैं कुछ भी समझ पाती
उसके पहले ही
मेरे वजूद को
अपना बवंडर बना
मुझपर ही
कहर बरपा जाते हो..
ये जो खुद्दार जिस्म है
उसके जर्रा-जर्रा में
दबी रहती है
जो इक जिद
उसे बेकदर मसह कर
बेकाबू सा जूनून न बनाओ...
तेरी तल्खी से तड़पता है जो
उसे अपने सीने से लगाकर
अपना सुकून न बनाओ...
न मैं संगेराह हूँ तेरी
न ही संगतराशी का
अब कोई शौक है मुझे
न ही किसी सैयाद से
किसी सिला की है आरजू
न ही किसी सज्जाद से ही
किसी वफ़ा की है जुस्तजू....
जिस्म है तो
उसकी फितरत ही है
सुलगते रहने की...
साँसे हैं तो
उसकी किस्मत है
अपनी बेवफाई में ही
उलझते रहने की...
जान है तो
उसकी भी बेताबी है
कहीं निसार हो जाए
और रूह है तो
उसकी भी बेबसी है
फना होने के लिए
कहीं बोसोकनार हो जाए...
पर जब तिनका का तक़दीर
कोई तूफ़ान लिखने लगता है
तो तिनका भी उड़कर
तूफ़ान की आँखों में ही गिरता है
फिर किसने कहाँ किस वजह से
ज़रा सी भी करवट ले ली
किसे रहता है उसकी याद
और बहते हुए
बेकसूर अश्कों की
सुनी नहीं जाती है
कभी कोई फ़रियाद .

Tuesday, June 10, 2014

उस 'शायद' में......

हो सकता है
मेरे फैले फलक पर
रंगबिरंगे बादलों का
छोटा-छोटा टुकड़ा सा
मेरा लिखा हुआ
सिर्फ काले अक्षर हों
या बस काली स्याही हो
और उसके चारों तरफ
बढ़ता हुआ
हो अनंत खाई.....
उसे खोज-खोज कर
या जोड़-जोड़ कर
पूरा पढ़ने के बाद भी
जटिल बुनावट वाली
ढरकते कगार ही मिलें
जिसपर सीधी रेखा में
चढ़ने के बाद भी
शब्दों से बाहर होने का
कोई उपाय न हो
और मुझे कांट-छांट करके
कहीं से भी दोहराते हुए
बस यूँ ही
समझने का उपक्रम भर
किया जाता रहे
साथ ही
मुझसे सहमत हुए बिना ही
असहमत शब्दों को छीन कर
भर दिया जाए
कोई और अर्थ.....
पर मैं
इस आशा में
लिखती हूँ / लिखती रहूँगी
कि 'शायद' कोई-न-कोई
कभी-न-कभी
शब्दों के खिलाफ होकर ही
उसे शास्त्र बना दे....
हो न हो
उस 'शायद' में
कहीं 'मैं' ही तो नहीं ?

Wednesday, June 4, 2014

भूलना ही सही है ....

प्रगति या पतन के
तय मानको के बीच
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन सूखी पत्तियों को
जिन्हें कभी हवा
अपनी
जरा सी फूंक से
उड़ा देती है
इधर से उधर
या खेल-खेल में
लहका कर
लगा देती है
जमीन पर
राख का ढेर....
भूलना ही सही है
उन सूखी पत्तियों की
खड़खड़ाहट को
जो एकांत के अकेलेपन में
घोलती रहती है
और भी उदासीनता
ओर-छोर तक
फैलता-गहराता धुंधलापन
नहीं चाल पाता है
अपनी चलनी से
जीवन के अंतर्विरोधों में
भागते-दौड़ते हुए
मूल्याँकन की
विसंगतियों को..
याद रखना
जरूरी तो नहीं है
उन हरे पत्तों को भी
जो श्रमशोषण , संघर्ष
या अन्याय के
विघटनकारी
ताकतों के बीच भी
जीवन में मौजूद
उस अंध व्यवस्थाओं के
केंद्र से हरसंभव
समझौता करने में
नाकाम रहते हैं....
भूलना ही सही है
एक-दूसरे को
दोस्त-दुश्मन बनाते हुए
धक्का-मुक्की करते हुए
उन हरे पत्तों को
जो काफी हद तक
टहनियों को
मजबूती से
पकड़ने के बाद भी
डाहवश
झाड़ दिए जाते हैं
सर्वहारा की तरह
और समय ठूंठ सा
अपनी गर्दन
हिलाने के सिवा
कुछ भी नहीं
कह पाता है .