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Saturday, January 31, 2015

पीवत जो बसंतरस लगी खुमारी .....

बसंत कियो जो हिय में बसेरा
आपुई मगन भयो मन मेरा

आओ पिय अब हमारे गाँव
बसंत को दियो अमरपुरी ठाँव

फिर कोंपलें फूट-फूट आई
फिर पत्तों ने पांजेब बजाई

झरत दसहुँ दिस मोती
मुट्ठी भर हुलास भयो होती

झीनी-झीनी परत प्रेम फुहार
चेति उड़ियो पंख पसार

कहा कहूँ इस देस की
प्रेम-रंग-रस ओढ़े भेस की

चहुंओर अमरित बूंद की आंच
सांच सांच सो सांच

जस पनिहारिन धरे सिर गागर
नैनन ठहरियो तो पेहि नागर

सब कहहिं प्रेम पंथ ऐसो अटपटो
तो पिय आओ , मोसे लिपटो

दांव ऐसो ही है दासि की
मद पिय करे सहज आसिकी

पिय मिलन की भई सब तैयारी
पीवत जो बसंतरस लगी खुमारी .

Sunday, January 25, 2015

हे जगद्धात्री !

हे  जगद्धात्री !
न धुन है न रस है
न संगीत है न ही सुवास है
न कोई विधि-विधान है
न कोई अभ्यास है
अकारण ही तेरा अनुग्रह हो
बस यही एक आस है

हे वाक् अधिष्ठात्री !
न कोई वक्तृत्व-शैली है
न कोई वाक-विन्यास है
न ही कोई कृति-कौशल है
यदि तू देती रहे सद्बुद्धि तो
बस यही एक बल है

हे विश्व धात्री  !
जब बोलने को कुछ हो
तो ही मुझे बोलना आये
अन्यथा मेरा चुप होना ही
बस सार्थक हो जाये

हे दीप्ति धारित्री  !
मेरी अनुभव सम्पदा
सौभाग्य का साधन बने
और मुझसे निकली वाणी
बस तेरा वाहन बने

हे दिव निर्मात्री !
मेरे गीतों से
सबके ह्रदय का प्रसाद बढे
जो गहन से गहन होकर
और-और पगे

हे विद्या विधात्री,
तेरा वरद्हस्त हो तो
शब्दों के काव्य भी
हो जाते हैं इतने रस सने
और जो तू वृहद्वर दे तो
मेरा सम्पूर्ण जीवन ही
शाश्वत काव्य बने .

हे अमृत दात्री!    

Saturday, January 17, 2015

नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .......

जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ
समाज से या स्वयं से
बनाने/बचाने में ही
हाय! कैसे मैं नष्ट की गयी हूँ

अब मैं धिक्कार लूँ ?
या आग की ललकार लूँ ?
या दर्द से दुलार लूँ ?
या काट की तलवार लूँ ?

केवल मैं धिक्कार हूँ ?
या स्वयं से स्वीकार लूँ ?
या समाज से प्रतिकार लूँ ?
या द्वंद से दुत्कार लूँ ?

अनजान होना पड़ता है कुछ जानकर भी
बहुत कुछ मानना पड़ता है न मानकर भी
साँचे में ढालना पड़ता है स्वयं को सानकर भी

कैसे मैं धिक्कार लूँ ?
कैसे प्रतिगत प्रहार लूँ ?
कैसे निर्वीर्य आभार लूँ ?
कैसे प्रतिपापी आधार लूँ ?

क्या मैं धिक्कार लूँ ?
या क्या केवल विष-आहार लूँ ?
या क्या सत्य से ही निवार लूँ ?
या क्या मिथ्या से भी अंगार लूँ ?

सबकुछ भष्म करने को लपलपाती हुई जीवित आग है
प्राण में भी उन्मन सा सरसराता हुआ नाग है
अर्थ , उद्देश्य , लक्ष्य क्या ? या जीवन ही विराग है

धिक्कार , धिक्कार , धिक्कार दूँ
इस मृत समाज को धिक्कार दूँ
सब मृत सत्य को धिक्कार दूँ
और मृत जीवन को भी धिक्कार दूँ

क्यों मैं धिक्कार लूँ ?
क्यों न विक्षोभ का हाहाकार लूँ ?
क्यों न विरोध का विकार लूँ ?
क्यों न विद्रोह का आकार लूँ ?

जीवित सत्य से भ्रष्ट की गयी हूँ मैं
मिथ्या सत्य से त्रस्त की गयी हूँ मैं
सत्य है , सबसे नष्ट की गयी हूँ मैं
पर आह ! नष्ट नहीं हुई हूँ मैं .

Thursday, January 8, 2015

आ न कौआ ........

                   आ! मेरे मुँडेर पर भी तू आ न कौआ
                    उसे टेर पर टेर दे कर बुला न कौआ
                  मेरा मनचाहा पाहुन आये या न आये
                  झूठ- सच जोड़ मुझे फुसला न कौआ

                   रात की हर आहट ने है मुझे जगाया
                   कोई वंशी-धुन आ साँसों से टकराया
                 हिय की हलबलाहट क्या बताऊँ कौआ
                  बड़ी जुगत से सपनों को संयत कराया

                तिस पे रात ने पूछा यह भुलावा किसलिए ?
                  औ' नींद ने पूछा यह छलावा किसलिए ?
                   कुछ कहने को नहीं रह जाता है कौआ
               जब देह भी पूछता है यह बुलावा किसलिए ?

                   अब भोर हुआ जग गए धरती-गगन
                  बोझ से झपीं पलकें है अभी तक नम
                  किन्तु ये आस तो मौन नहीं है कौआ
                   देखो! द्वार पर ही बैठे हैं दोनों नयन

                    हर घड़ी की भाव- दशा है स्वागत की
                   तू ही तो संदेशा लाता है हर आगत की
                   मेरा पाहुन आएगा , आएगा न कौआ ?
                    ना मत कह , मत बात कर आहत की

                   कहूँ तो एकमात्र अतिथि है मेरा पाहुन
                  जो बिन तिथि के ही ले आता है फागुन
                  इस तिथि को तू भी अतिगति दे कौआ
                  और तू टेर पर टेर दे कर, कर न सगुन

                   आ! उस ऊँची मुँडेर से तू आ न कौआ
                  अपना चंचल गीत तू किलका न कौआ
                   इस घर-आँगन, देहरी-दरवाजे पर बैठ
                  मेरे मनचाहा पाहुन को तू बुला न कौआ .